उत्तराखंड का हरेला पर्व: परंपरा, पूजा विधि और इतिहास

उत्तराखंड का हरेला पर्व: उत्तराखंड की संस्कृति विविधता से भरी हुई है और यहाँ के पर्व-त्योहार प्रकृति से गहरे जुड़े हुए हैं। उन्हीं में से एक है — हरेला पर्व। यह त्योहार हरियाली, पर्यावरण संरक्षण, नई फसल की शुरुआत और पारिवारिक समृद्धि का प्रतीक है। यह पर्व मुख्यतः कुमाऊं अंचल में बड़े उत्साह से मनाया जाता है।

आइए विस्तार से जानते हैं कि हरेला पर्व क्या है, क्यों मनाया जाता है, इसकी पूजा विधि क्या है और इसका ऐतिहासिक महत्व क्या है।

उत्तराखंड का हरेला पर्व
             उत्तराखंड का हरेला पर्व

हरेला पर्व क्या है?

हरेला’ शब्द ‘हरा’ से निकला है, जिसका अर्थ होता है हरियाली या हरापन। यह पर्व उत्तराखंड के कृषि प्रधान समाज में वर्षा ऋतु की शुरुआत और नई फसल के बोने की परंपरा के रूप में मनाया जाता है। हरेला धरती के पुनर्जन्म, हरियाली और जीवन के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।

यह पर्व मुख्य रूप से आषाढ़ मास के अंतिम नवमी तिथि (आषाढ़ शुक्ल पक्ष की नवमी) को मनाया जाता है। इस दिन को श्रावण मास के स्वागत के रूप में भी देखा जाता है।

हरेला पर्व का इतिहास और परंपरा:

हरेला पर्व की शुरुआत किस राजा ने की थी, इसके बारे में कोई एकदम ठोस ऐतिहासिक अभिलेख नहीं है, लेकिन लोक परंपराओं और इतिहासकारों की मान्यता के अनुसार इसकी शुरुआत कुमाऊँ के कत्यूरी राजाओं के समय मानी जाती है।

हरेला पर्व की परंपरा बहुत पुरानी है, जो कुमाऊं के राजाओं के समय से चली आ रही है। माना जाता है कि इस पर्व की शुरुआत कृषि चक्र और वर्षा ऋतु के आगमन के समय के साथ हुई थी। यह दिन भगवान शिव और पार्वती के विवाह की याद में भी मनाया जाता है।

ऐतिहासिक रूप से:

  • पहले राजमहलों में इस पर्व को बड़े समारोह के रूप में मनाया जाता था।

  • धान, गेहूं, मक्का और अन्य बीजों को मिट्टी में बोकर उनकी 9 दिनों तक देखभाल की जाती थी।

  • नवमी को इन हरे अंकुरों को काटकर पूजा की जाती थी और लोगों को आशीर्वाद के रूप में दिया जाता था।

हरेला की पूजा विधि:

हरेला की पूजा विधि सीधी और पारंपरिक होती है, जो प्राकृतिक और पारिवारिक मूल्यों से जुड़ी होती है।

हरेला बोने की विधि (सप्तमी तिथि को प्रारंभ):

  1. घर की महिलाएं या वृद्धजन मिट्टी को किसी लकड़ी या पीतल की छोटी टोकरी/पात्र में भरते हैं।

  2. इसमें धान, गेहूं, मक्का, उड़द, सरसों आदि के बीज मिलाकर बोए जाते हैं।

  3. हर दिन उसमें हल्का जल छिड़का जाता है और सूर्य देवता से अच्छी फसल की प्रार्थना की जाती है।

नवमी तिथि को पूजन:

  1. नवमी के दिन अंकुर (हरेला) लगभग 5 से 7 इंच लंबे हो जाते हैं।

  2. इन्हें काटा जाता है और भगवान शिव-पार्वती की पूजा की जाती है।

  3. घर के बुजुर्ग सदस्य छोटे बच्चों के सिर पर हरेले को छूकर आशीर्वाद देते हैं –
    “जीते रहो, फूले-फले, धरती जस पच फैलो।”

  4. घर-घर में प्रसाद बाँटा जाता है और कुछ लोग इन्हें अपने खेतों में भी ले जाकर गाड़ते हैं।

उत्तराखंडी पारंपरिक आशीर्वचन:

“जी रये जागि रये, फूले-फले, पाछी नह बाता, धरती जस पच फैलो, बुरि दृष्टी टलि जाला, हरेला आशीष देई।”

हिंदी अर्थ:

  • जी रये जागि रये – तुम जीवन में हमेशा स्वस्थ और जागरूक रहो।

  • फूले-फले – तुम जीवन में समृद्धि और खुशहाली से भर जाओ।

  • पाछी नह बाता – जीवन में कभी पीछे न हटो, निरंतर आगे बढ़ो।

  • धरती जस पच फैलो – जैसे धरती सबको धारण करती है, वैसे तुम भी महान बनो।

  • बुरी दृष्टि टल जाला – तुम पर कभी बुरी नजर न लगे।

  • हरेला आशीष देई – हरेला पर्व तुम्हें आशीर्वाद दे।

इसका महत्व:

इस आशीर्वाद में उत्तराखंड की प्राकृतिक संस्कृति, आध्यात्मिक भावना, और पारिवारिक प्रेम छुपा होता है। यह केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि पीढ़ियों का दिया हुआ शुभकामना मंत्र है, जो हरियाली, समृद्धि और सकारात्मकता का प्रतीक है।

हरेला और पर्यावरण:

हरेला पर्व केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि पर्यावरण जागरूकता का भी प्रतीक है। इस दिन लोग—

  • वृक्षारोपण करते हैं

  • पेड़-पौधों को पूजा में शामिल करते हैं

  • बच्चों को प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण का महत्व समझाते हैं।

वर्तमान समय में उत्तराखंड सरकार और सामाजिक संस्थाएं हरेला को “पर्यावरण पर्व” के रूप में मना रही हैं। स्कूलों, कार्यालयों और सार्वजनिक स्थलों पर वृक्षारोपण अभियान चलाए जाते हैं।

बच्चों के लिए विशेष महत्व:

हरेला पर्व पर घर के बच्चों के सिर पर हरेले रखकर आशीर्वाद देने की परंपरा है। यह उन्हें सकारात्मक ऊर्जा, लंबी उम्र और समृद्ध जीवन के लिए शुभ माना जाता है। साथ ही यह पीढ़ी दर पीढ़ी परंपरा को आगे बढ़ाने का माध्यम भी है।

हरेला पर्व की सांस्कृतिक झलक:

  • इस दिन महिलाएं पारंपरिक पिचौड़ा पहनती हैं और गीत गाती हैं।

  • गाँवों में सांस्कृतिक कार्यक्रम, नृत्य और भजन का आयोजन होता है।

  • कुछ जगहों पर मेले और खेल-कूद प्रतियोगिताएँ भी होती हैं।

  • लोग पारंपरिक व्यंजन बनाते हैं जैसे झंगोरे की खीर, आलू के गुटके आदि।

उत्तराखंड का हरेला पर्व
           उत्तराखंड का हरेला पर्व

आधुनिक समय में हरेला:

आज के दौर में, जब पर्यावरण संकट गंभीर होता जा रहा है, हरेला पर्व की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है। यह न केवल हरियाली और फसल के लिए शुभ है, बल्कि यह हमें प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने का संदेश देता है।

उत्तराखंड में हर साल सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा लाखों पेड़ इस दिन लगाए जाते हैं। स्कूलों में निबंध प्रतियोगिता, पोस्टर मेकिंग और पर्यावरण शपथ जैसे आयोजन होते हैं।

हरेला पर्व उत्तराखंड की धार्मिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय पहचान का प्रतीक है। यह त्योहार हमें हमारी मूल जड़ों से जोड़ता है और प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने का अवसर देता है।
इस पर्व को केवल एक रस्म न मानें, बल्कि इसे पर्यावरण संरक्षण और जीवन ऊर्जा के उत्सव के रूप में अपनाएं।

आप भी इस हरेला पर एक पौधा लगाएं और आने वाली पीढ़ी को एक हरा-भरा उत्तराखंड सौंपें।

अगर आप चाहें तो मैं हरेला पर पारंपरिक गीत, वृक्षारोपण अभियान पोस्टर, या बच्चों के लिए पर्यावरण शिक्षा पर एक्टिविटी भी तैयार कर सकता हूँ। बताइए क्या चाहिए?

ऐसे और भी राष्ट्रीय ख़बरों से संबंधित लेखों के लिए हमारे साथ जुड़े रहें! Khabari bandhu पर पढ़ें देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरें — बिज़नेस, एजुकेशन, मनोरंजन, धर्म, क्रिकेट, राशिफल और भी बहुत कुछ।

उत्तराखंड में गायों की दुर्दशा: जंगल बना अंतिम ठिकाना

Leave a Comment