उत्तराखंड में गायों की दुर्दशा: जंगल बना अंतिम ठिकाना

उत्तराखंड में गायों की दुर्दशा: उत्तराखंड, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता, धार्मिक स्थलों और गौ-पूजन की परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है, इन दिनों एक चिंताजनक सामाजिक समस्या से जूझ रहा है। यहाँ बड़ी संख्या में दूध नहीं देने वाली गायों को ‘अयोग्य’ मानकर जंगलों में छोड़ दिया जा रहा है। यह न केवल एक मानवीय संकट बन चुका है, बल्कि पर्यावरणीय असंतुलन, वन्यजीव संघर्ष और धार्मिक मूल्यों के क्षरण का भी कारण बन रहा है।

उत्तराखंड में गायों की दुर्दशा
             उत्तराखंड में गायों की दुर्दशा

इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि यह विवाद क्या है, इसके पीछे के कारण, सामाजिक व धार्मिक दृष्टिकोण, सरकार की भूमिका और संभावित समाधान।

क्या है विवाद?

उत्तराखंड के कई ग्रामीण क्षेत्रों में यह देखा जा रहा है कि जब गाय दूध देना बंद कर देती है या बूढ़ी हो जाती है, तो उन्हें पालने की बजाय जंगलों में छोड़ दिया जाता है।
इन छोड़ी गई गायों को अक्सर खाने के लिए कुछ नहीं मिलता, और वे भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर दम तोड़ देती हैं। कई बार ये गायें जंगली जानवरों जैसे बाघ, गुलदार (तेंदुए), भालू आदि का भी शिकार बन जाती हैं।

कुछ जगहों पर इन मृत गायों के कंकाल झाड़ियों में सड़ते हुए पाए गए हैं। इससे न केवल धार्मिक आस्थाएं आहत हो रही हैं, बल्कि यह जंगलों के जैविक तंत्र के लिए भी खतरनाक बन रहा है।

गायों को जंगल में छोड़ने के कारण:

  1. आर्थिक बोझ:
    ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब किसानों के लिए एक गाय का पालन करना तब आर्थिक रूप से कठिन हो जाता है जब वह दूध देना बंद कर देती है। चारे की कीमत, देखभाल और चिकित्सा खर्च उठाना कठिन हो जाता है।

  2. बदलता कृषि ढांचा:
    पहले खेती में गायों की उपयोगिता अधिक थी, लेकिन ट्रैक्टर और मशीनों के आने से बैल व गायों की भूमिका कम हो गई है। इससे इन्हें अनुपयोगी समझा जाने लगा।

  3. समुचित गौशालाओं की कमी:
    राज्य सरकार ने कई गौशालाओं की घोषणा तो की, लेकिन ज़्यादातर गौशालाएं या तो चालू नहीं हैं या क्षमता से ज़्यादा भरी हैं। इसलिए लोग मजबूरी में गायों को जंगल में छोड़ देते हैं।

  4. कानूनी ढीलापन:
    उत्तराखंड में पशु त्याग को लेकर कठोर कानून तो हैं, लेकिन उनका पालन और निगरानी न के बराबर है। इससे लोगों को कोई डर नहीं होता।

धार्मिक और सामाजिक विरोध:

गाय को भारत में विशेषकर हिंदू धर्म में ‘माता’ का दर्जा प्राप्त है। उसे पूजनीय माना जाता है। लेकिन उसी गाय को जब जंगल में भूखा-प्यासा मरते हुए देखा जाता है, तो धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचती है।

स्थानीय साधु-संत और गौ भक्त संगठनों ने इस मुद्दे पर सरकार की आलोचना की है और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है।

विरोध के मुख्य बिंदु:

  • यह गौ-हत्या के समान है, भले ही अप्रत्यक्ष रूप से हो।

  • यह धर्म, संस्कृति और मानवता के विरुद्ध है।

  • अगर किसी बूढ़े माता-पिता को कोई घर से निकाल दे, तो समाज उसे अपराध मानता है, फिर यह क्यों नहीं?

पर्यावरण और वन्यजीवों पर असर:

  1. जंगलों में भोजन की प्रतिस्पर्धा:
    गायें जब जंगलों में जाती हैं, तो वे स्थानीय वन्यजीवों का चारा भी खा जाती हैं, जिससे पारिस्थितिक असंतुलन होता है।

  2. वन्यजीव संघर्ष:
    भूखी गायें गांवों में लौटने की कोशिश करती हैं, जिससे वे जंगली जानवरों का शिकार बनती हैं। इससे जानवरों का व्यवहार भी आक्रामक होता है।

  3. बीमारियों का खतरा:
    खुले में मरने वाली गायों के शव नष्ट नहीं होते और सड़ने से संक्रमण फैलता है, जिससे इंसानों और अन्य जानवरों को बीमारियाँ हो सकती हैं।

उत्तराखंड में गायों की दुर्दशा
            उत्तराखंड में गायों की दुर्दशा

सरकार की भूमिका और लापरवाही:

उत्तराखंड सरकार ने कई बार गौ संरक्षण की घोषणाएँ की हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर इसका असर नहीं दिख रहा।

  • कई गौशालाएं केवल कागज़ों पर हैं।

  • कोई स्पष्ट योजना नहीं है कि दूध न देने वाली गायों का क्या किया जाए।

  • पंचायत स्तर पर भी निगरानी तंत्र कमजोर है।

  • पशुपालन विभाग की रिपोर्टिंग व्यवस्था भी लचर है।

क्या हो सकते हैं समाधान?

  1. राज्यस्तरीय गौ-निवास केंद्र:
    हर जिले में बड़ी गौशालाएं स्थापित की जाएं, जहाँ बूढ़ी या असहाय गायों को रखा जा सके।

  2. गौ-सेवा आधारित रोजगार योजना:
    युवाओं को गायों की देखभाल के लिए प्रशिक्षण देकर रोजगार दिया जाए। इससे सेवा और आय दोनों का मार्ग खुलेगा।

  3. नियमों को कठोरता से लागू करना:
    जो व्यक्ति गाय को जंगल में छोड़ता है, उसके खिलाफ कड़ा दंड हो।

  4. गाय के गोबर और गोमूत्र से उत्पाद:
    बूढ़ी गाय भी गोबर और गोमूत्र देती है, जिससे जैविक खाद और कीटनाशक बनाए जा सकते हैं। इसका व्यवसाय बढ़ाया जाए।

  5. धार्मिक संस्थाओं की भागीदारी:
    मंदिरों, मठों और धार्मिक संगठनों को गौशालाओं के संचालन में भागीदार बनाया जाए।

उत्तराखंड जैसे आध्यात्मिक और पर्यावरणिक दृष्टि से समृद्ध राज्य में गायों की ऐसी दुर्दशा किसी भी समाज के लिए शर्मनाक स्थिति है।
जहाँ एक ओर हम ‘गौ माता’ की पूजा करते हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें जंगल में मरने के लिए छोड़ देना एक गंभीर सामाजिक विडंबना है।

समस्या का समाधान केवल सरकार या समाज के एक वर्ग की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह हम सभी की नैतिक, धार्मिक और मानवीय जिम्मेदारी है कि हम इन निरीह प्राणियों की रक्षा करें और उन्हें सम्मानजनक जीवन दें।

यदि अब भी चेतना नहीं आई, तो यह केवल गायों की नहीं, हमारी संस्कृति और मानवता की भी मृत्यु होगी।

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