ओवरकुकिंग: भारतीय रसोई का स्वाद दुनिया भर में प्रसिद्ध है। मसालेदार करी, तड़के की खुशबू, और रंग-बिरंगे व्यंजन – सब कुछ हमारे भोजन को खास बनाते हैं। लेकिन एक सवाल जो अक्सर पोषण विशेषज्ञ और स्वास्थ्य विशेषज्ञ उठाते हैं, वह यह है – क्या हम भारतीय सब्ज़ियों को ज़रूरत से ज़्यादा पका रहे हैं?
🕰️ प्राचीन भारत में खाना पकाने की परंपरा:
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आयुर्वेदिक दृष्टिकोण:
आयुर्वेद के अनुसार, पका हुआ खाना “पाचन के लिए सरल” माना जाता है। कच्चे भोजन को “गुरु” (भारी) और “अपाच्य” कहा गया, इसलिए पुराने समय से ही सब्ज़ियों को अच्छी तरह पकाकर खाना एक स्वस्थ आदत मानी गई। -
संक्रमण से बचाव:
भारत का गर्म और आर्द्र मौसम बैक्टीरिया और फफूंद (fungus) के लिए उपयुक्त होता है। पहले रेफ्रिजरेटर नहीं होते थे, इसलिए भोजन को ज्यादा देर तक सुरक्षित रखने के लिए उसे अच्छे से पकाया जाता था, ताकि उसमें कोई संक्रमण न फैले। -
धार्मिक दृष्टिकोण:
कई धार्मिक ग्रंथों में भी खाना पकाने की प्रक्रिया को शुद्धता से जोड़ा गया। “अग्नि में पका भोजन” को सात्विक माना गया, और उसे प्रसाद की तरह ग्रहण किया गया।
सब्ज़ियों को ज़्यादा पकाना: भारतीय आदत या आवश्यकता?
भारत में भोजन पकाने की परंपरा सदियों पुरानी है। पहले के समय में खाने को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए, संक्रमण से बचाने के लिए और स्वाद को गहराई देने के लिए खाना ज़्यादा पकाया जाता था। विशेषकर सब्ज़ियाँ – जिन्हें हम अक्सर प्रेशर कुकर, कढ़ाही या तवे पर काफी देर तक पकाते हैं।
इसका एक कारण यह भी है कि भारतीय व्यंजन मसालेदार होते हैं, और मसालों को अच्छे से मिलाने के लिए सब्ज़ियों को ज़्यादा पकाना ज़रूरी समझा जाता है।
🧓 पारिवारिक परंपराएँ:
भारतीय परिवारों में खाना बनाना एक पीढ़ियों से चली आ रही प्रक्रिया है। दादी-नानी की रेसिपी में अक्सर सब्ज़ियाँ तब तक पकाई जाती थीं जब तक वे “मुंह में घुल” न जाएं। यह आदत(ओवरकुकिंग) आज भी अनेक घरों में जारी है।
पोषण का नुक़सान:
हालांकि स्वाद में यह खाना लाजवाब होता है, लेकिन स्वास्थ्य के नजरिए से जब सब्ज़ियों को बहुत ज़्यादा पकाया जाता है, तो उनमें मौजूद ज़रूरी पोषक तत्व जैसे विटामिन C, विटामिन B-कॉम्प्लेक्स, और कुछ एंटीऑक्सीडेंट नष्ट हो जाते हैं।
उदाहरण के लिए:
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पत्तेदार सब्ज़ियाँ जैसे पालक, मेथी या सरसों अगर अधिक समय तक पकाई जाएं, तो उनका आयरन तो रहता है, लेकिन विटामिन C और फोलेट काफी हद तक खत्म हो जाते हैं।
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ब्रोकली और गोभी जैसी सब्ज़ियाँ अगर ज़्यादा पकती हैं, तो उनका एंटी-कैंसर प्रभाव कमजोर पड़ जाता है।
आदत बन चुकी है ‘ओवरकुकिंग’:
भारत में यह ओवरकुकिंग आदत इतनी गहराई से जड़ें जमा चुकी है कि अधपकी या हल्की उबली सब्ज़ियाँ कई लोगों को “कच्ची” लगती हैं। विशेषकर बुज़ुर्ग वर्ग इसे अधूरा भोजन मानते हैं। यहाँ तक कि स्कूल के टिफिन में भी सब्ज़ियाँ तब तक पकाई जाती हैं जब तक वो पूरी तरह नरम ना हो जाएं।
बदलाव की ज़रूरत:
आजकल जब स्वास्थ्य और फिटनेस को लेकर जागरूकता बढ़ रही है, तब लोग धीरे-धीरे स्टीमिंग, सॉटे, ग्रिलिंग और रॉ सलाद की ओर आकर्षित हो रहे हैं। रॉ या हल्की पकी हुई सब्ज़ियाँ न केवल स्वादिष्ट होती हैं, बल्कि शरीर को अधिक पोषण भी देती हैं।
कुछ बेहतर विकल्प:
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सब्ज़ियों को हल्का उबालें या भाप में पकाएं।
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बिना ज़रूरत उन्हें कुकर में ना डालें।
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“तड़का” डालने की प्रक्रिया को सीमित रखें और कम तेल का प्रयोग करें।
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“एक बाइट में कड़कपन” वाली सब्ज़ियाँ ज़्यादा पोषक होती हैं।
विज्ञान भी यही कहता है:
अनेक अध्ययनों से यह सिद्ध हुआ है कि सब्ज़ियों को ज़्यादा पकाने से उनके प्राकृतिक रंग, बनावट और पोषण तत्वों में हानि होती है। जैसे:
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विटामिन C गर्मी के संपर्क में आकर नष्ट हो जाता है।
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बीटा-कैरोटीन, जो गाजर और टमाटर में होता है, अगर थोड़ी देर पकाया जाए तो बेहतर होता है, लेकिन ज़्यादा पकाने से वह भी टूट जाता है।
तो क्या करें?
जरूरी नहीं कि हम अपने पारंपरिक व्यंजन छोड़ दें। हमें बस उन्हें थोड़े बेहतर और स्वास्थ्यवर्धक तरीके से पकाने की आदत डालनी होगी।
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बच्चों को रॉ सलाद की आदत डालें।
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दिन में एक बार बिना ज़्यादा पकी सब्ज़ियाँ खाएं।
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बाहर खाने की बजाय घर में ही भाप में बनी सब्ज़ियाँ ट्राय करें।
भारतीय भोजन की खुशबू और स्वाद की कोई तुलना नहीं है। लेकिन बदलते समय के साथ ज़रूरत है कि हम अपने खाने के तरीकों में भी बदलाव लाएं। सब्ज़ियों को कम समय तक पकाकर न केवल हम उनके पोषक तत्वों को बचा सकते हैं, बल्कि अपने शरीर को भी बेहतर स्वास्थ्य दे सकते हैं।
तो अगली बार जब आप सब्ज़ी बनाएं, एक बार ज़रूर सोचिए – क्या इसे थोड़ा कम पकाना बेहतर रहेगा?
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